First edition of Nazariya Magazine, themed “Imperialism: In and Out” released on 18th March, 2023 in the form of a physical magazine. Contact us for your copy!

पंचायत चुनाव : लोकतांत्रिक व्यवस्था की आड़ में एक ढकोसला

पंचायती राज व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमारे समाज के इतिहास के गर्भकाल में जाना होगा। सन् 1947 ई० को अंग्रेजों ने भारत की सत्ता को एक समझौते के तहत, भारतीय दलाल शासक वर्ग को सौंप दी। कहने को तो भारत आजाद हो गया पर अंग्रेजों द्वारा खड़ा किया गया राजनीतिक व प्रशासनिक ताना-बाना ज्यों का त्यों बना रहा। जो दरोगा एक दिन पहले अंग्रेज अफसर के कहने पर भारतीयों पर गोली चलाने से भी नहीं हिचकता था, वह भी दरोगा पद में बना रहा, अंग्रेजों के लिए भारत के विरुद्ध गद्दारी करने वाला अफसर भी ज्यों का त्यों अफसर बना रहा। जो आदमी आजादी के आंदोलन में सशस्त्र विद्रोह करने के आरोप में जेल में बंद था, वह जेल में ही बंद रहा। बहुसंख्यक जनता सामंती शोषण और साम्राज्यवादी लूट का शिकार रही। 26 नवंबर, सन् 1949 ई० को अंग्रेजों द्वारा पारित भारत सरकार कानून(1935) के प्रावधानों को आधार मानकर, संविधान सभा ने अनेक देशों के पूंजीवादी संविधान के प्रावधानों को संकलित करते हुए एक मिश्रण तैयार कर उसे भारत के संविधान का रूप दे दिया। भारतीय दलाल शासक वर्ग ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषमता को खत्म किये बिना ही, भारत के संविधान को लागू कर दिया। इसके अलावा सन् 1947 ई० के बाद 2 महत्वपूर्ण बातें हुई, पहले सिर्फ अंग्रेज भारत को लूटते थे और अब अनेकों साम्राज्यवादी देश अमेरिका, जापान, जर्मनी, रूस और चीन भी भारत के संसाधनों व सस्ती मजदूरी को लूटते हैं। दूसरा, सबको वोट का अधिकार दे दिया। पं० नेहरू सरकार ने जनता की बुनियादी आवश्यकता और आकांक्षाओं को पूरा करना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी। इसके विपरीत, सन् 1952 ई० में सामाजिक व आर्थिक ढांचे में बदलाव के नाम पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों के इशारे पर सामुदायिक विकास योजना को लागू कर, साम्राज्यवादी पूंजी निवेश के लिए रास्ता खोल दिया। गौरतलब है कि, सामुदायिक विकास योजना ऐसे समय पर लागू की गई, जब देश में तेलंगाना आंदोलन की आग धधक रही थी| जिसमें कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में “जमीन जोतने वाले को” नारे के आह्वान के साथ बड़े जमींदारों के खिलाफ संघर्ष हुआ और लगभग 4000 गांवों में क्रान्तिकारी जन कमेटियों का निर्माण किया गया। तेलंगाना आंदोलन के दौरान इतने विस्तृत रूप में पहली बार जमीन और संसाधनों के असमान वितरण के सवाल को उठाया गया जिससे भारतीय शासक वर्ग को गहरा आघात पहुंचा। सामुदायिक विकास योजना को इसीलिए भी लागू किया गया ताकि क्रान्तिकारी भूमि सुधार कार्यक्रम से जनता का ध्यान भटकाया जा सके। परंतु भारतीय शासक वर्ग की यह योजना सफल नहीं हो पाई। इसके अलावा, तेलंगाना आंदोलन से उभरकर सामने आए क्रान्तिकारी मॉडल क्रांतिकारी जन कमेटी (RPC) के विकल्प को मिट्टी में मिला देने के छुपे हुए उद्देश्य के तौर पर सन् 1957 ई० में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया| जिसने अपनी रिपोर्ट में लोकतांत्रिक शक्तियों का विकेंद्रीकरण करने की सिफारिश की। जनवरी सन् 1958 ई० में सरकार ने इस कमेटी की सिफारिशों को मंजूरी दे दी। 2 अक्टुबर,सन् 1959 ई० को राजस्थान के जालौर जिले में तात्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने देश की पहली तीन स्तरीय पंचायत का उद्दघाटन किया और इसके कुछ  दिनों बाद 11 अक्टुबर सन् 1959 ई० को आंध्र प्रदेश में भी इसको लागू किया गया। इसके बाद पंचायती राज व्यवस्था में सुधार के लिए अलग-अलग समय पर समितियां बनी जिनमें अशोक मेहता समिति (सन् 1977 ई० – सन् 1978 ई०), पी० वि० के० राव समिति (सन् 1985 ई०), डा० एल्० एम० सिंधवी समिति (सन् 1986 ई०) और यूग्न समिति (सन् 1988 ई०) शामिल हैं। इसी दौरान गाडगिल समिति ने तीन स्तर की पंचायती व्यवस्था की वकालत करते हुए इसको संवैधानिक दर्जा दिए जाने की सिफारिश की। इसके पश्चात नरसिम्हा राव के प्रधानमन्त्री कार्यकाल में 73वें संविधान संशोधन के तहत इसको स्वीकृति दी और भारत के संविधान में पंचायत नामक एक नया खण्ड 9 जोड़ा, अनुच्छेद 243 से 243(O) शामिल किये गए और एक नई 11वीं अनुसूची  भी जोड़ी गई।

तेलंगाना क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान एक किसान सभा

पंचायती राज व्यवस्था क्या और किसके लिए ?

पंचायती राज व्यवस्था एक तीन स्तरीय शासन प्रणाली है| जो वर्तमान में नागालैंड, मेघालय और मिजोरम को छोड़कर सभी राज्यों में लागू है। इस तीन स्तरीय शासन प्रणाली में सबसे ऊपर जिला परिषद होती है, जो राज्य सरकार के साथ तालमेल रखती है, केंद्र व राज्य सरकार की नीतियों को पंचायत समिति के पास भेजती है। दूसरे स्तर पर ब्लॉक समिति होती है, जो तीसरे स्तर की ग्राम पंचायत के पास धन इत्यादि भेजती है। इससे स्पष्ट है कि, ग्राम पंचायतें गाँव के विकास के लिए स्वतंत्र रूप से फैसले ले पाने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि, इन्हें पैसे के लिए सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है। मान लिया जाए कि, सरकार द्वारा गांव में सड़क आदि के लिए राशि भेजी गई है, तो पंचायत को जरूरत न होने पर भी उससे सड़क बनवानी ही होगी। यदि सड़क नहीं बनवाई, तो पैसा वापस करना होगा। बीडीओ पंचायत की किसी भी योजना को खारिज कर सकता है। इसका अर्थ है कि, पंचायत की नाममात्र की स्वतंत्रता भी छीन ली जाती है। एसडीओ या राज्य सरकार कभी भी पंचायत को भंग कर सकती है। गांव के विकास की योजनाएं सैकड़ों अधिकारियों के घूस लेने के बाद ही पंचायत तक पहुंचती हैं। पंचायत पर खर्च होने वाले 1 रुपये में से 15 पैसे ही लोगों तक पहुंचते हैं, 85 पैसे अफसर बीच में ही खा जाते हैं।

हमें बताया और पढ़ाया जाता है कि, गाँव के ऐसे सभी लोगों से मिलकर ग्राम सभा बनती है| जिनकी आयु 18 वर्ष या 18 वर्ष से अधिक होती है। इस ग्राम सभा के सभी सदस्य यानी लोग मिलकर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं| जिसे ग्राम पंचायत कहा जाता है। ये ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि ग्रामीण विकास और लोगों की भलाई के लिए काम करते हैं। परंतु हकीकत यह है कि, आम तौर पर गांवों में ग्राम सभा की मीटिंग ही नहीं होती, यहाँ तक कि, लोगों को ग्राम सभा के बारे में पता ही नहीं होता। ग्राम सभा की मीटिंग बुलाने की जिम्मेदारी मुख्यतः सचिव की होती है| जिसमें सचिव ग्राम पंचायत और अपने ऊपर वाले अफसरों के साथ मिलकर सिर्फ कागजी तौर पर ही मीटिंग करते हैं। अपनी जेब गर्म करने में व्यस्तता के कारण ये ग्राम सभा की मीटिंग तक नहीं करते, ये किसी भी योजना को लागू करने से पहले लोगों से कोई सलाह सुझाव नहीं लेते। इनसे जनता की इच्छा और आकांक्षाओं को पूरा करने की उम्मीद करना मूर्खता ही होगी।

73वें संविधान संशोधन के तहत पंचायती राज व्यवस्था में दलितों और महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया परंतु इसके बावजूद गाँव की राजनीति में दलितों और महिलाओं की भागीदारी बहुत ही कम है। ज्यादातर गांवों में महिलाओं को चौपाल में चढ़ने ही नहीं दिया जाता। जिन गांवों में महिला सरपंच चुनी गई है, वहाँ पंचायत का सारा कामकाज उसका पति ही देखता है। वह तो अभी भी घूंघट करके पति के कहने पर दस्तखत (हस्ताक्षर) कर दे रही है। यही हलात दलितों की भी है। जिन गांवों में सरपंच अनुसूचित जाति से चुना जाता है, वहाँ आमतौर पर प्रभुत्वशाली वर्ग ही कामकाज संभालते हैं। इस चुनावी व्यवस्था में कौन खड़ा होगा और वोट किसे दी जानी है यह उम्मीद्वार की क्षमताओं, योग्यताओं या मुद्दों पर किसी व्यक्ति की समझ के आधार पर तय न होकर उसकी जाति, धर्म व मोहल्ले के आधार पर तय होता है। तमाम उम्मीद्वार चुनाव जीतने के लिए जातीय समीकरण बैठाते हैं। चुनाव जीतने के लिए भाई को भाई से, एक मोहल्ले को दूसरे मोहल्ले से लड़ाते हैं। वोट खरीदने के लिए खूब सौदेबाजी होती हैं। पैसा, देशी-विदेशी दारू की बोतलें बस्तियों में पहुंच जाती हैं। चुनाव से पहली दो रात में ही, लाखों रुपए वोट खरीदने और दारू बांटने में खर्च हो जाते हैं। असली काम तो चुनाव वाले दिन होता है। पूरे बाहुबल का प्रयोग कर वोटरों को अपने पक्ष में लाने के प्रयास किये जाते हैं। बूथ कब्जाना, फर्जी मतदान करना, विरोधी दल के मतदाताओं को धमकाना सरेआम चलता है। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत चुनाव में एकदम सच साबित होती है, क्योंकि, जो जितना बड़ा शातिर होता है, उसके चुनाव में जीतने की सम्भावना उतनी ही ज्यादा होती है। आमतौर पर गांव में आपने सुना ही होगा कि, चुनाव लड़ना किसी शरीफ व गरीब के बस का काम नहीं है। चुनाव में जनता के सामने यह विकल्प ही नहीं होता कि, अच्छे और बुरे में से किसको चुनना है। विकल्प यह रहता है कि, बुरों में से सबसे कम बुरा कौन सा है। जनता के वोट का मतलब यह नहीं होता कि, कौन जनता के हितों के अनुसार काम करेगा! बल्कि वोट का मतलब यह होता है कि, शोषक वर्ग के साथ मिलकर अगले 5 साल तक जनता को लूटने का लाइसेंस किसे मिला है! ऐसी हालत में सहज ही सोचा जा सकता है कि, जनता का सच्चा प्रतिनिधि चुनाव में खड़ा ही नहीं हो सकता। खड़ा हो गया तो जीत नहीं सकता। गलती से जीत गया तो शोषक वर्ग के इतने सारे प्रतिनिधियों में क्या कर लेगा!

हरियाणा में चुनाव का दिन

गाँव में चुनी हुई ग्राम पंचायत के अलावा भी एक अन्य पंचायत होती है| जिसे खाप पंचायत कहा जाता है। चुनी हुई पंचायत में इसके फैसले के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं होती| बल्कि, वह समर्थन में खड़ी होती है। गाँव में झगड़े होने की स्थिति में अभी भी खाप पंचायतों द्वारा निर्णय लिए जाते हैं। अंतर्जातीय विवाह, एक ही गाँव में विवाह जैसे- मामलों में लड़के-लड़की की हत्या कर देने, दलितों और अल्पसंख्यकों का सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार करने जैसे- सामंती क्रूर फरमान आज भी खाप पंचायतें जारी कर देती हैं। हाल ही में अनुवादित प्रेम चौधरी की एक किताब ‘ग्रामीण हरियाणा में घुंघट प्रथा: बदलते स्वरूप’ में बताये गए विवरण के अनुसार सन् 1993 ई० में हरियाणा के सोनीपत जिले के गांव सिसाना में एक सर्वखाप पंचायत में लड़के-लड़कियों के सह-शिक्षा की संस्थाएं बनने के खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया था। इसके अलावा भगाना(हिसार), मिर्चपुर(हिसार), भाटला(हिसार), छातर(जींद) और भूड़(पंचकुला) आदि गांवों में दलितों का सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार करने के मामले सामने आए। चुनी हुई पंचायत की इसमें या तो पूर्ण सहमति होती है या मौन सहमती।

एक वर्ग विभाजित समाज में कोई भी शासन व्यवस्था प्रभुत्वशाली वर्ग के हाथों में अपने हितों को पूरा करने और मेहनतकश जनता का शोषण व दमन करने का औजार होता है। पंचायती राज सरकार का ही एक अंग है| जिसे शासक वर्ग के हितों को पूरा करने के लिए बनाया गया है। यह स्थानीय स्वशासन के नाम पर बड़े जमींदारों, सूदखोरों, ठेकेदारों और साहूकारों का अपना शासन है| जिसमें जनता को पाँच साल में एक बार वोट डालने की गतिविधि में घसीट लिया जाता है, ताकि जनता इस मुगालते में रहे कि, यह सब उसके वोट से हुआ है। इससे साफ है पंचायती राज व्यवस्था जनता के गुस्से को शांत करने के लिए सेफ्टी वाल्व का काम करती है। इसके अलावा पंचायती राज जनता के जनवादी अधिकारों की कोई कदर नहीं करती। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। सत्ता हस्तांतरण के बाद जनता के भारी दबाव के चलते सरकार को सन् 1972 ई० में हरियाणा के अंदर भू-हदबंदी कानून बनाना पड़ा था। लेकिन यह कभी लागू नहीं हो पाया, क्योंकि, गाँव स्तर पर जहां इसको लागू होना था और इसे लागू करवाने की जिनकी जिम्मेदारी थी यानी स्थानीय प्रशाासन-पटवारी, तहसीलदार, डीसी, पुलिस और कानून व्यवस्था आदि, वे सब तो बड़े जमींदारों के घर सुबह शाम हाजिरी लगाने आते थे। अतः ऊपर से आए ये आदेश कागजों में ही रहे। आज भी अनेकों गाँव में कानूनन जमीन दी जा चुकी है| लेकिन व्यवहार में उनका कब्जा नहीं हुआ है, क्योंकि, गाँव के दबंग लोग, स्थानीय प्रशाासन के साथ मिलकर कानूनी अधिकारों को धत्ता बता रहे हैं। हरियाणा के सामाजिक कार्यकर्ता और वकील राजेश कापड़ो ने जन मंच को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि, हरियाणा में पंचायतों के पास लगभग 12 लाख एकड़ जमीन है| जिसमें से कानूनी तौर पर एक तिहाई आरक्षण के हिसाब से लगभग 3 लाख से ज्यादा जमीन दलितों की बनती है जिसपर तथाकथित ऊँची जाति और उच्च वर्ग के लोगों ने ही कब्जा कर रखा है। आगे कहा कि, सन् 2008 ई० में कांग्रेस की हुड्डा सरकार ने हरियाणा में महात्मा गांधी ग्रामीण बस्ती योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों को 100-100 गज के प्लाट दिए, जिनका इन परिवारों को आज तक कब्जा नहीं मिला है और जहां कब्जा मिल गया है, वह गाँव से दूर मिला है, जहाँ बिजली, पानी, सड़क आदि की कोई सुविधा नहीं है। गाँव के सरकारी स्कूल में अध्यापक सही ढंग से पढ़ा रहे हैं या नहीं, गाँव का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सही ढंग से चल रहा है या नहीं, इसकी खोज खबर पंचायत कभी नहीं लेती। हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में नशे का कारोबार बढ़ता ही जा रहा है| जिससे युवा आबादी तबाह हो रही है। पंचायतें कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है, क्योंकि, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से इनकी गाढ़ी कमाई यहीं से आती है। संक्षेप में, पंचायती राज जनता की दुख -तकलीफों से किसी भी प्रकार का सरोकार न रखने वाली एक गैर लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलावा कुछ भी नहीं है। इससे ज्यादा उम्मीद करना खुद के साथ बेईमानी ही होगी।

आखिर सही विकल्प क्या हो ?

हर पाँच साल में एक बार वोट डाल देने से कुछ नहीं होगा। बल्कि, इस व्यवस्था में हमारा वोट डालने का अर्थ इस व्यवस्था को मजबूती देना है। बहुसंख्यक जनता को एक ऐसा विकल्प चाहिए जो सही मायने में सामंती और साम्राज्यवादी शासन का विकल्प हो, एक ऐसा विकल्प जो जनता के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, ईलाज, रोजगार जैसी अन्य मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने की पक्की गारंटी दे। शासन का संचालन बहुसंख्यक जनता के हित, आवश्यकता और सुरक्षा को ध्यान में रखकर किया जाए तथा जनता के नियंत्रण में ही रहकर किया जाए। जनता को चुनने के अधिकार के साथ-साथ वापस बुलाने का भी अधिकार हो। एक ऐसा विकल्प, जो सामूहिकता की भावना को आगे ले जाए। परंतु  मौजूदा समाज में यह विकल्प लागू होना सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, हमारा समाज एक वर्ग विभाजित समाज है जहां एक तरफ मेहनत करने वाले मजदूर, किसान, कारीगर, दुकानदार, छोटा-मोटा काम करके गुजर-बसर करने वाले, कर्मचारी आदि समाज का बहुसंख्यक हिस्सा है, तो दूसरी तरफ एक बहुत छोटा हिस्सा बड़े जमींदारों, ठेकेदारों, सूदखोरों और साहूकारों का है| जो खुद कुछ नहीं करता बल्कि, दूसरों की मेहनत पर ऐश व अय्याशी करता है। यही वर्ग जो आबादी का सिर्फ 5% से 10% हिस्सा है| लेकिन उत्पादन के तमाम साधनों व धन-दौलत का मालिक है और जनता का निर्मम शोषण करता है। मौजूदा व्यवस्था को चलाने वाला यह शोषक शासक वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि, उनके मुनाफे और लूट का राज खत्म हो। दुनिया के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है| जिसने देश और समाज की तरक्की के लिए खुद अपनी इच्छा से शांतिपूर्वक अपने सारे विशेषाधिकार त्याग दिए हो बल्कि, यह अपने शासन को कायम रखने के लिए क्रूरतम तरीके अपनाता है। इतिहास गवाह है कि, नई व्यवस्था के लिए पुरानी गली-सड़ी व्यवस्था को खत्म होना ही होता है। एक बेहतर समाज का निर्माण करने के लिए इस शोषण और दमन पर आधारित व्यवस्था को उखाड़ फेंकना बहुत जरूरी है।

हालाँकि, मनरेगा जैसी योजनाओं ने जनता को साल में 100 दिन के रोजगार का विकल्प दिया था, परंतु यह योजना फिर से नौकरशाही और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई। मुखिया और प्रखंड विकास पदाधिकारी(BDO) के भ्रष्टाचार के बारे में बहुत सी सरकारी रिपोर्ट लिखती हैं। सन् 2022 ई० में संसदीय कमेटी की रिपोर्ट ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि, सही लोगों तक इस योजना का लाभ नहीं पहुंच पाता रहा है। पंचायती राज व्यव्स्था ने भी मुख्य धारा के विनाशकारी विकास को ही बढावा देने का कार्य किया है। जिसका परिणाम है कि, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा जैसे- राज्यों को व्यापक पलायन का सामना करना पड रहा है। मौजूदा स्थिति में जहां भारत के विकास मॉडल ने देश के उत्पादन शक्तियों (तकनीक और मानव) के विकास को अवरुद्ध किया है| वही इस प्रक्रिया ने लोगों में पूर्व में ही मौजूद सामंती कार्य-प्रणाली को बदलने में कोई व्यापक मदद नहीं की है। कई भारतीय विचारकों का मानना है कि, वर्तमान व्यव्स्था ने समाज के अंदर आधारभूत परिवर्तन लाए हैं। परंतु यह सवाल एक विश्लेषण का विषय है कि, क्या लोग जमीन और जमीन से जुड़े संबंधों से स्वतः एक विकास की प्रक्रिया के कारण अलग हुए हैं! या कृषि पर सरकारी खर्चों को कम कर या बाजर में उचित कीमत ना देकर उन्हें शहरों की तरफ जबरदस्ती धकेला जा रहा है। गाँवों में लोगों से यह अक्सर कहते हुए सुना गया है कि, “खेती किसानी फायदे का सौदा नहीं रहा, इससे दो वक़्त की रोटी भी उपलब्ध नहीं हो सकता”| यह ऐक्टिविस्ट के लिए एक गंभीर चुनौती है और उसे स्वीकार करते हुए लोगों के जीवन से जुड़ी समस्याओं को हल करते हुए उनके अधिकारों को उन्हें महसूस कराना होगा। सरकारी मार्क्सवादी और सही मार्क्सवादी में यही एक बड़ा फर्क़ होता है। जहां सरकारी मार्क्सवादी खुद को केवल सत्ता प्रतिपक्ष से सत्ता में लाने के लिए आरोप-प्रत्यारोप में लगे रहते हैं, वहीं सही मार्क्सवादी समाज का उचित विश्लेषण करते हुए संघर्ष के साथ निर्माण का कार्य भी आगे बढ़ाता रहता है।

शंकर गुहा नियोगी का मजदूरों के मध्य कार्य और परीक्षण एतिहासिक मार्क्सवादी विचारधारा के विकास के कड़ी के रूप मे देखे जाने की जरूरत है| जिसे एक विशेष काल और परिस्थिति में लागू किया गया। वर्तमान में  कमतर होते जा रहे बड़े आंदोलनों के कारण संघर्ष का काम धीमा पड़ा है। चूँकि, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि, संघर्ष और निर्माण के मध्य एक द्वंद्वात्मक (dialectical) संबंध है, इसलिए आंदोलनों के साथ निर्माण का कार्य भी धीमा हुआ है।

इसीलिए मौजूदा पंचायती चुनाव के जन विरोधी चरित्र का पर्दाफाश करना होगा। पेरिस कम्यून, रुसी क्रान्ति, चीनी क्रांति और हमारे देश के क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष से उभरे एक नए क्रान्तिकारी विकल्प के रूप में जन कमेटियों (PC) का निर्माण किए बिना एक सच्चे लोकतांत्रिक समाज की स्थापना असम्भव है। अत: ‘ज़मीन जोतने वाले को’ और ‘सारी सत्ता जन कमेटियों को’ नारा आज भी प्रासंगिक है। इससे अलग कोई शॉर्टकट नहीं है|

by Manisha, student of Political Science at Maharshi Dayanand University

Download PDF of this article here

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

Comments (

0

)

Blog at WordPress.com.

%d bloggers like this: