First edition of Nazariya Magazine, themed “Imperialism: In and Out” released on 18th March, 2023 in the form of a physical magazine. Contact us for your copy!

क्या सिर्फ मतदान ही लोकतंत्र का सम्मान है?

क्या आपने पहले कभी दिल्ली नगर निगम के चुनाव को इतने–ताम झाम से होते हुए देखा है?अगर नहीं, तो यह सवाल उठता है कि इस बार ये चुनाव देश भर में क्यों चर्चित रहा ?सिर्फ कूड़े के पहाड़,यमुना सफाई अभियान,हाउस टैक्स माफ़ी,फैक्ट्री के लाइसेंस की माफी,पर्यावरण ही नहीं बल्कि जेल में भ्रष्टाचार के आरोप में बंद AAP मंत्री के मसाज वीडिओज़ चर्चा का विषय रहे।

देश भर के बड़े से बड़े नेताओं ने चुनाव प्रचार के अंतिम दिन तक दिल्ली में डेरा डाले रखा। देश के शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी,रेल मंत्री पीयूष गोयल,हरियाणा के मुख्य मंत्री मनोहर लाल खट्टर,उत्तराखंड के मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामी,उत्तर प्रदेश के उपमुख्य मंत्री केशव प्रसाद मौर्या मौजूद थे। सत्ताधारी पार्टी ने बड़े बड़े चेहरों को MCD चुनाव प्रचार में उतारा। बंगाल की लॉकेट चैटर्जी से लेकर हिमाचल के अनुराग ठाकुर तक,गोपाल राय से केजरीवाल तक,और अनिल चौधरी से अभिनेत्री नगमा तक प्रचार में शामिल रहे। देश में सबसे लंबा राज करने वाली पार्टी यानि कांग्रेस जोकि कुछ राज्यों तक सिमट चुकी है इन दिनों भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त है,उन्होंने भी MCD चुनाव के लिए 200 से ज्यादा रैलियां निकाली। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे जोर-शोर से मौजूद BJP और AAP की रैलियों की संख्या कई गुना ज्यादा रही होगी। अलग-अलग क्षेत्रों से आए दल प्रचारको ने चुनाव को जीत में तब्दील करने के लिए दिन रात एक कर दिया। ऐसे लग रहा था जैसे की मोदी,केजरीवाल या राहुल खुद नगर निगम चलाते हों।

हर प्रचारक के जबान पर मोदी, केजरीवाल या राहुल के गुणगान तो थे लेकिन स्थानीय जनता के मुददे महंगाई, बेरोजगारी, आवास की समस्या, ठेकेदारी प्रथा आदि गायब रहे। हर गली मोहल्ले में चुनाव सभाएं,रैलियां और रोड शो निकाले गए। पूरा शहर तरह-तरह की चुनावी पार्टियों के प्रचार से भरा हुआ था। बेरोजगार प्रवासी मजदूरों को इस चुनाव प्रचार में मात्र 250 से 500 दिहाड़ी और दिन में एक बार का खाना देकर लगाया गया। और तो और कुछ जगहों पर उनको चलते फिरते विज्ञापन यंत्र बनाकर छोड़ दिया। चुनावी नोक झोंक जहां पर मुफ्त रेवड़ियों पर गरमा गर्मी हुई उसी समय मजदूरों को मुर्गा दारु देकर लोकतंत्र का चुनावी खेल संपन्न भी हुआ। स्थानीय और राष्ट्र मीडिया के लिए MCD चुनाव मेले की तरह था जहां अलग-अलग नेताओं के विवादित बयानों के भण्डार TRP रेटिंग का पेट भर रहे थे। दिन रात TV पर ऐसे दिखाया गया जैसे की भाड़े पर बुलाई भीड़ ही MCD का ताज निर्धारित करेगी। चुनाव आयोग के आदेश पर MCD कर्मचारी और स्कूल टीचर्स को ड्यूटी पर लगाया गया। बच्चों की शिक्षा और जनता के स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर लोकतंत्र का नाटक रचा गया।

दिल्ली एमसीडी चुनाव के लिए भाजपा के प्रमुख सदस्यों ने अपनी योजनाओं की घोषणा की

MCD का ताना बाना

15 साल BJP राज के बाद MCD के खाते खाली हैं। अब AAP MCD पर अगले 5 साल राज करेगी। सालों से बकाया न देने के आरोप–प्रत्यारोप के बाद अब AAP राज्य सत्ता और MCD दोनों में काबिज है। लेकिन सत्ता में आई AAP क्या काम करेगी? क्या सत्ता हासिल करना और जनता के लिए काम करना दोनों एक ही है?  AAP ने वोटरों से 5 साल खुद राज करने की अनुमति मांगी है। तो आइये हम एक बार MCD के कार्यभार पर नजर डालें। MCD का कार्यक्षेत्र सफाई, पानी, सड़क, आवास, प्रॉपर्टी और व्यवासियक टैक्स लेना है। MCD के अंदर बिल्डिंग विभाग एक अहम यूनिट है जो लोगों के घरों को बनाने,रजिस्ट्री आदि में बड़ी भूमिका निभाता हैं। किसी भी तरह के आवासीय,व्यावसायिक और औद्योगिक निर्माण बिना MCD के नहीं हो सकता।

सरकार द्वारा दिल्ली को स्विट्ज़रलैंड जैसे बनाने के लिए विदेशी पूंजी का निवेश रियल एस्टेट (ज़मीन या बिल्डिंग बेचने  (व्यापार) में बढ़ाना जरूरी माना जा रहा है। अमेरिकी कंपनी हाइनेस (Hines) देश के सबसे बड़े शहरों की ज़मीन के बाजार में पैर जमा चुकी है। जापानी कंपनी मित्सुई फेउदोसँ (Mitsui Fuedosan) का इस देश के RMZ Corp के साथ दिल्ली,मुम्बई और बैंगलोर में लैंड और बिल्डिंग डेवलपमेंट का जॉइंट वेंचर (Joint Venture) यानी समझौता है। दिल्ली- NCR में बेईमानी के आरोप से घिरे रहेजा बिल्डर्स जिनको कठपुतली कॉलोनी से 2016 में बेघर हुए लोगों को बसाने के लिए कॉन्ट्रैक्ट में कौड़ियों के दाम पर जमीन मिली है उनका सऊदी अरब के साथ जॉइंट वेंचर है। लैंड डेवलपमेंट के नाम पर DLF, शापूर्णजी–पालोनजी (Shapoornji-Pallonji), लार्सन एंड टुब्रो (Larson & Toubro), TATA हिउसिंग,श्याम टेलीकॉम जैसी सैकड़ो कंपनियों का निवेश शहर में जड़ पकड़ चुका है।

हाल ही चर्चा में रहा दिल्ली के ड्राफ्ट रीजनल प्लान जोकि दिल्ली मास्टर प्लान 2041 को पूरा करने की नजर से बनाया गया है। इस प्लान के अंतर्गत गरीब तबकों की जमीनों को कंपनियों के हवाले सौंपने का प्लान है। यह हाशिए पर पहुंचे लोगों के लिए घोर जनविरोधी प्लान है। पिछले साल से दिल्ली के मास्टर प्लान को आगे करके बुलडोज़र का दौर चला है। कई जगह घरों का डिमोलिशन हुआ तो कई जगह डिमोलिशन के नोटिस लगाया गए हैं। ज़्यादातर ये ऐसे इलाके हैं जहां दलित,मुस्लिम आबादी बसी है जैसे की ख़ोरी, ग्यासपुर,धोबी घाट,बाबरपुर,शाहीन बाग,सुन्दर नगरी,खड़क गांव,सेवा नगर,कस्तूरबा नगर आदि । 2016 में हटाये गए कठपुतली कॉलोनी के निवासी आज भी ट्रांजिट कैंप में रह रहे है। चुनाव के ठीक पहले देश के प्रधान मंत्री ने बहुत जोर-शोर से फ्लैट देने की घोषणा की थी। रहेजा बिल्डर्स ने 6 साल बाद भी लोगों को घर बनाकर नहीं दिया। लाखों रूपए घर देने के नाम पर वसूलने के बाद कठपुतली के निवासी आज भी ट्रांजिट कैंप में असहाय जीवन जी रहे है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी खोरी गांव के सभी लोगों को घर नहीं मिला है और वह आज ठण्ड हो या बरसात मलबे पर तिरपाल लगाकर जीवन जीने को मजबूर हैं। इसी समय केंद्र सरकार 2023 में G-20 समिट (G-20 Summit) के लिए शहर को खूबसूरत बनाने के नाम पर सिर्फ सेंट्रल दिल्ली से भिखारियों को सड़क से हटाकर DUSIB (Delhi Urban Shelter Improvement Board) भेजने का काम,सारे वाहन बंद कर सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक वाहनों को चलाने की अनुमति देना,रेहड़ी पटरियों को हटाने का काम सरोजनी,कमला मार्किट में बहुत तेज़ी से हो रहा है। इसके अलावा भी बहुत सारे काम जो G20 के नाम पर अगले कुछ महीनों में किए जाएंगे वो अस्थायी तौर पर सिर्फ अन्तराष्ट्रीय फलक पर झूठी चमक के लिए होने है।

दिल्ली के इतिहास में व्यापारी वर्ग जोकि अमूमन बनिया समुदाय से है वो कोआपरेटिव,यानि व्यापार वशिष्ट सहकारी समिति चलाते हैं,जो अक्सर जाति आधारित होती हैं। इनकी पूंजी का निवेश सीधे व्यापार और भूमि कब्जे पर होता है। बड़ी विदेशी कंपनियों से लेकर बड़े बिल्डर्स को ज़मीन खाली करने का काम इन छोटे बिल्डरों का धंधा है। मेहनतकशों के लिए खराब गुणवत्ता का घर बनाकर उन्हें किस्तों पर लेने के लिए मजबूर करना जोकि भू माफिया के लिए अरबों खरबों रुपयों का सौदा है। यह शोषण करने वाला दलाल पूंजीपति सीधे उत्पादन में शामिल मेहनतकश जनता के श्रम को लूटता है और बेहिसाब मुनाफा कमाता है।

प्रॉपर्टी टैक्स में छूट और बिल्डिंग बनाने की अनुमति पाने के लिए इन व्यापारियों और भू माफिया को MCD में अपने उम्मीदवार खड़ा करना जरूरी है। उम्मीदवारों को खड़ा करने,प्रचार करने और जिताने में इनकी भूमिका बहुत बड़ी हैं। अगर देखे तो जमीन,आवास और व्यापारिक कर में छूट पाने के लिए ये चुनावी खर्चे कुछ भी नहीं हैं। दिल्ली नगर निगम (संशोधन) विधेयक 2022 के तहत हुए एकीकरण के बाद अप्रैल में होने वाले चुनाव दिसम्बर में जाकर हुए। जिसमें 250 वार्ड बने, 13,638 मतदान केंद्र,1,349 उम्मीदवार और 450+ उम्मीदवार निर्दलीय थे। विज्ञापन, रैलियों, नुक्कड़ सभाओं और भाड़े पर लायी गयी भीड़,हजारों टेम्पो,ई-रिक्शा,गाड़ियों के खर्च के आलावा पोलिंग बूथ के सामने अनेकों पार्टी द्वारा टेबल/हेल्प डेस्क लगाये गए जिसमें कार्यकर्ताओं और 10-15 समर्थकों पर किये गए खर्चे को जोड़ दिया जाए तो समझ में आता है कि पैसों की बारिश के बिना चुनावी फसल उग ही नहीं सकती।

व्यापारी वर्ग जोकि इन उम्मीदवारों के लिए एक आर्थिक रीढ़ है उनके लिए MCD को अपने कारोबारी हित में तब्दील कराना ही उनकी जीत है। इस चुनाव में AAP ने गर्व से दावा किया है कि 20 लाख व्यापारियों से उन्होंने सम्वाद किया है। हाल ही में देश की वित्तमंत्री सीतारमण ने GST कॉउंसिल की बैठक में एलान किया कि कारोबारियों पर 2 करोड़ रुपए तक गड़बड़ियों के मामलों में मुकदमा नहीं चलाया जाएगा। ये कहते हुए एलान हुआ है कि इस तरह के मुकदमे कारोबारियों का वक़्त बर्बाद करते है और ‘Ease of doing business’ के खिलाफ हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारें सभी व्यापारियों,उनके विदेशी मालिकों और सामंतों के लिए ही काम करती है। इसीलिए जब शहर के छोटे से बड़ा व्यापारी चुनाव पर इतने करोड़ो रुपए खर्च करता है तो वह दसियों गुना वसूलता भी है। इससे भी पता चलता है कि इतने तामझाम से किये गए यह चुनाव किसके हित में है?

दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA), दिल्ली नगर निगम (MCD), नई दिल्ली नगर निगम (NDMC), दिल्ली जल बोर्ड (DJB), लोक निर्माण विभाग (PWD), केंद्र और राज्य संस्थाओं के बीच रिश्ते ऊपरी तौर पर उतार चढ़ाव के दिखते हैं। लेकिन उन्हें अंदरूनी स्तर पर देखें तो यह सारी संस्थाये जमीन,पूंजी और इनको चलाने वाले दलालों की सांठगांठ पर खड़ी रहती हैं। इन संस्थाओं के रिश्ते इनके चरित्र और दिशा तय करते है जोकि इनके वर्गीय हितों के कारण जन विरोधी होते हैं। यह एक ऐसी श्रेणी है जो यथास्थिति को बनाये रखना चाहती है और बदलाव की राजनीति से ही कांपती है। सत्तारूढ़ सरकार की नीतियों पर नज़र डालने पर दिखता है कि इस शहर को कुछ बड़े धन्ना सेठ,ज़मींदार और उनके दलाल अमरीकी जापानी कंपनियों के लिए चला रहे है। बड़े बड़े हवाई अड्डों,रैपिड ट्रांजिट ट्रेनों,हेलीपैड जोकि चुनिंदा पूंजीपतियों के लिए ही उपयोग में आएंगे इस तरह के प्रावधानों पर ही पूरा जोर है। इस तरह की पूंजी शहर के निवासियों के हित में है ही नहीं। यह साम्राज्यवादी पूंजी के लिए काम करता है। इसी विदेशी पूंजी का निवेश MCD और अन्य शहरी एजेंसियां से पूरा किया जाता है। इलेक्टोरल बांड (Electoral Bond) के सवाल पर सभी संसदीय दलों की चुप्पी उनकी आर्थिक मजबूती के साम्राज्यवादी रहस्य को खोलता है। इसीलिए BJP, AAP, कांग्रेस जैसे अन्य संसदीय दलों के बीच कोई फर्क नहीं है क्योंकि ये सारे संसदीय दल एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं और इन्ही शोषक वर्गों के हित में काम करते हैं।

बीजेपी के नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाते आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल

धूमिल की कविता इस बात की ओर इंगित करती है।

एक आदमी

रोटी बेलता है

एक आदमी रोटी खाता है

एक तीसरा आदमी भी है

जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है

वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है

मैं पूछता हूँ—

‘यह तीसरा आदमी कौन है?’ मेरे देश की संसद मौन है।

– रोटी और संसद / धूमिल

वोटरों पर एक नज़र

देश की राजधानी होने पर देशभर से लोग यहां आकर बसे है। ज़्यादातर यह लोग इस शहर में सदियों से काम करने के बावजूद भी डोमिसाइल सर्टिफिकेट (domicile certificate) या पहचान पत्र से वंचित है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार आज दिल्ली की जसंख्यां 3.2 2 करोड़ से ज्यादा है जिसमे कुल वोटरों की संख्या 1.48 करोड़ है। इस नगर निगम चुनाव में 50% लोगों ने ही अपने मतदान का इस्तेमाल किया है। इस शहर की कुल जनसंख्या को जोड़ने पर हम पाते हैं कि 50% से कम लोगों ने ही चुनाव में भागीदारी की। जब यह आंकड़ा हमारे सामने है तो क्या हम कह सकते है कि चुनाव विजेता सही में दिल्ली की जनता का प्रतिनिधि हैं?

इस बार चुनाव में 50% वार्ड महिलाओं और 42 संख्या अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित की गई थी। इसमें 50% सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होने के बावजूद भी क्या महिलायें स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की स्थिति में दिखीं हैं? पिताओं, पतियों और बेटों के अधीन महिला एक चुनावी चेहरे तक ही सीमित रही। ये बात अक्सर गांव के पंचायती चुनाव में दिखाई देती है जो हाल ही में हरियाणा में भी दिखी। लेकिन इस बार सीधे तौर पर राजधानी के चुनाव में मौजूद थी। इसमें एक बात और गौर करने की है कि BJP द्वारा चुनाव विज्ञापनों में गरीब घरों कीलड़कियों को शादी के लिये 50 हजार रुपए शगुन देने का वादा किया गया। ये उदहारण हमें दिखाते हैं कि सामंती और पितृसत्तामत्क सोच संस्थाओं मे किस हद तक जड़ जमाये हुए है। किसी आदमी के अधीन रहकर, दहेज के रिवाज़ को कायम रखकर और परिवार के नियंत्रण को तोड़े बिना महिलाओं के निगम परिषद में पहुँच जाने से क्या पितृसत्ता खत्म हो जाएगी? रूढ़िवादी सोच से घिरे इस समाज में पूरे व्यवस्था को बदले बिना महिलाओं की मुक्ति संभव नहीं है।

नगर निगम के कार्यों और जनता के मुद्दों पर चर्चा होने के बजाय जाति,धर्म,क्षेत्र के आधार पर उम्मीदवारों को महत्व दिया गया। राजनैतिक चेतना से काटकर जनता को उनकी पहचान तक सीमित कर देने की समझ देश के हर चुनाव में नज़र आती है। गौर तलब है कि चुनाव आयोग कभी भी इस तरह की समझ पर सवाल नहीं उठाता और न ही रोकने का कोई काम करता है। मुस्तफाबाद जैसे अल्पसंख्यक इलाकों में CPM द्वारा सिर्फ शांति और सद्भावना की बात करना ये दर्शाता है कि 2020 के जनसंहार पर न्याय और CAA-NRC जैसे मुद्दे सी. पी. एम. के लिए कोई मायने नहीं रखते। जब भी कोई संसदीय पार्टी सत्ता हासिल करती है तो लोगों के विरोध पर इनका रवैया एक जैसा हो जाता है। जैसे केरल में अभी अदानी विजहिंजम (Vizhinjam) बंदरगाह के विरोध में खड़े लोगों के खिलाफ सीपीएम का वर्गीय रुख दिखता है। साम्राज्यवादी पूँजी की मदद करना यह संशोधनवादी विचारधारा नहीं तो क्या है? NOTA (None of the Above) की संख्या 2017 में 48,000+ से बढ़कर इस बार 57,000+ पहुंची है। इस चुनावी खेल में कोई विकल्प न होने पर NOTA दबाकर आने वाले वोटरों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन NOTA दबाने वालों से सवाल बनता है कि इस व्यवस्था का विकल्प क्या है? क्या सिर्फ NOTA दबाकर हम अधिकार का उपयोग कर रहे है या उसी खराब व्यवस्था को मजबूत कर रहे है? NOTA दबाकर लोकतंत्र में अपनी भागीदारी को व्यक्तिगत कर्तव्य तक सीमित समझना अक्सर निम्न पूंजीपति वर्गों की सोच है। यह व्यक्तिगतवाद सोच कभी संस्थागत रूप से बदलाव की कल्पना नहीं कर पाती ।

इस बार चुनाव में कुल वोट कम हुआ है जो दिखाता है कि लोगों का इस चुनावी ढकोसले से विश्वास उठ रहा है। NOTA अन्य क्षेत्रीय और संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों की भागीदारी देखेंगे तो पाएंगे कि इनका कुल वोट शेयर NOTA  से बहुत कम है। इससे पता चलता है कि लोग इनमें से किसी को भी सही विकल्प नहीं मानते। निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या भी इस बार घटी है। और उनका जीत न पाना दिखाता है कि चुनावी ढकोसले में भारी मात्रा में पैसा और बल न होने से जीतना नामुमकिन है।

एक और दिलचस्प बात देखने में आयी कि बवाना और गोकुलपुरी में बुनियादी सुविधाएं न मिलने पर और कस्तूरबा नगर में DDA द्वारा ध्वस्तीकरण के नोटिस (demolition notice) के विरोध में लड़ रहे लोगों द्वारा बैनर और पर्चे बांटकर  इलेक्शन बहिष्कार का प्रचार किया। आंदोलनों के बल पर लोगों की राजनैतिक चेतना का स्तर बढ़ा। हाल ही में आंदोलन और किसान आंदोलन का असर इन जगहों की राजनितिक चेतना पर पड़ा। चुनाव बहिष्कार की ये CAA-NRC-NPR विरोधी आंदोलन और किसान आंदोलन का असर इन जगहों की राजनीतिक चेतना पर पड़ा। चुनाव बहिष्कार की ये झलक राजनीतिक चेतना को दर्शाती है। जब लोग संगठित होकर चुनाव का बहिस्कार करते हैं और एक ऐसे नव जनवादी समाज को गढ़ने की गढ़ने की तरफ बढ़ते हैं जहां बराबरी, इज्जत और अधिकार होगा।

जन संघर्ष ही जन विकल्प है

देश के प्रधान मंत्री ने जनता को बार बार अधिकारों को नकार कर कर्तव्य पर ध्यान देने को कहा। हाल ही में सेंट्रल विस्टा बनाने के वक्त राजपथ का नाम कर्तव्य पथ बदलकर इस समझदारी को जमीन पर गाड़ा गया। अलग-अलग तरीक़ों से जनता को कहा जा रहा है कि वो सरकार से सवाल न पूछें। बल्कि उन्हें याद दिलाया जा रहा है कि देश की उन्नति के लिए उनके कर्तव्यों का पालन करना जरुरी है। इसी सेंट्रल विस्टा पर हजारों करोड़ो रूपए खर्च किए गए हैं जिसमें शापूरजी पालनजी और लार्सन एंड टूब्रो (L&T) जैसी बड़ी कंपनियों के नेतृत्व में दिहाड़ी मजदूर दिन रात कोविड के समय इनके राजघराने बनाने में लगे रहे। जब महंगाई, बेरोजगारी,आर्थिक मंदी, तंगहाली से बदहाल जनता सवाल उठाती है उस समय झूठ के किस्से बार-बार दोहराकर आर्थिक संकट को नकारा जाता है या नोटों पर लक्ष्मी के फोटो चिपकाने जैसी निर्रथक बातें कही जाती हैं। क्या यह घोर ढोंग नहीं है? यह ढोंग जनता कब तक सहेगी? जिस आर्थिक संकट को छुपाने की कोशिश आज कल सभी सांसद कर रहे है उसी आर्थिक संकट का मुक़ाबला कर रहे लोगों की राजनैतिक चेतना और लोगों की सीधी भागेदारी के बिना चाहे जितना भी चुनाव करा लीजिए कर्तव्य पर जोर देना लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकता।

दुनिया के बड़े लोकतंत्र में हुए चुनाव की बात कहने पर इस देश के वो लोग याद आते हैं जिन्होनें इसे बनाया है। मज़दूरों और किसानों के बिना ये शहर चल ही नहीं सकता। फैक्ट्री और कारखानों में मेहनत कर रहे मजदूर, आस पास छोटे खेतों में काम कर रहे छोटे किसान और खेत मजदूर, सफाई कर्मचारी, गाड़ी चालक, रेहड़ी-पटरी वाले, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, घरों में झाडू- बर्तन करने वाली कामगार महिलायें, डिलीवरी में कार्यरत नौजवान जो की सर्वहारा और अर्ध सर्वहारा वर्ग में आते है उनके साथ छोटे कारोबारी और दुकानदार, सर्विस सेक्टर में कार्यरत नौजवान, स्कूल और यूनिवर्सिटी के टीचर्स इत्यादि और अन्य वर्ग के लोगों कि इस शहर को बनाने में बड़ी भूमिका है। हर नगर निगम की जवाबदेही इन वर्गों के प्रति होनी चाहिए लेकिन देश की सारी व्यवस्थाएं और संस्थाएं कुछ मुट्ठीभर साम्राज्यवादी पूंजीपति,दलाल नौकरशाह पूंजीपति और बड़े जमीन्दारों के हाथों में है। यह शोषक वर्ग और उनका गहरा गठजोड़ मौजूदा उत्पादन संबंधों को अपने वर्गीय हितों के लिए बनाये रखता है। 1947 मे राजनैतिक स्तर पर ब्रिटिश राज ख़त्म होने के बाद आर्थिक और सामाजिक स्तर पर साम्राज्यवादी ताकतों का इस देश के समांती हुकूमत के साथ गठजोड़ मजबूत हुआ। 80 के दशक से दलालों की भूमिका बढ़ती गयी और 90 के दशक में देश की जनता के शोषण और लूट पर फलते-फूलते इन शोषणकारी तबको ने नंगा नाच किया। शहर हो या गांव,बस्ती हो या कॉलोनी,अर्ध औपनिवेशिक,अर्ध सामंती उत्पादन संबंध खुले तौर पर मौजूद है। इस MCD चुनाव में शोषकों के इन संबंधों प्रदर्शन प्रचंड था। बेरोजगारी,गरीबी,भुखमरी से त्रस्त जनता को चुनाव के ढकोसले में उलझाकर रखना इस व्यवस्था को कायम रखने का तरीका है। यह समझने वाली बात है कि 40-50% वोट मिलाकर आये प्रत्याशी या बिना लड़े आये कुछ गिने चुने खास नेता जनता का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकते है? जनपक्षधरता लोगों से ही निकलकर आएगी। जब जनता वोट देने से इंकार करती है तो वह एक राजनैतिक समझदारी के साथ इस व्यवस्था को चुनौती देती है। यह चुनौती देती है कि हम इस ढकोसले को नहीं मानते हैं। अक्सर ट्रैन या मेट्रो में या अपने हमदर्दी के बीच बहस के समय गुस्से में या निराशा में एक सवाल सामने आता हैं “लेकिन इसका विकल्प क्या हैं?” यह सवाल का जवाब भी जनता ही दे पायेगी।

जनविकल्प इस ढांचे से नहीं आएगा। जनपक्ष विकल्प उत्पादन संबंध बदलने के संघर्षों से निकलकर आएगा। राजनैतिक समझदारी पर जोर देने से एक जुझारू जनवादी विकल्प बनेगा। जिम्मेदारी,जवाबदेही और जनपक्षधरता के बिना जनवाद की कल्पना नहीं की जा सकती। देश भर में लोग अपने जीवन को इज्जत से जीने के लिए जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ रहे है। शहरों में यह लड़ाई बेरोजगारी और निजीकरण के खिलाफ,घरों और दुकानों के अतिक्रमण के खिलाफ और अपने बुनियादी अधिकारों के लिए है। अपने सही दुश्मन और सच्चे मित्र को पहचान कर इस लड़ाई मे शामिल होकर एक नए समाज का निर्माण करना ही सच्चा जनवाद होगा। हर पांच साल में होने वाले चुनाव में सिर्फ वोट देने को अपना अधिकार न मानकर हमें हर इस तरह के जनवादी संघर्ष को पहचानना आना चाहिए और सर्वहारा के दुनिया बदलने की क्षमता को आगे ले जाना चाहिए।

हल्द्वानी में लोगों का विरोध

इस समाज के आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक राजनैतिक गैर बराबरी की मौजूदगी को अगर हम पहचानते हैं तब हम ये भी पहचानेंगे की इस गैर बराबरी को तोड़ पाने की क्षमता सिर्फ इस समाज के शोषित,मेहनतकश वर्गों के नेतृत्व में ही हो सकती है। ये नेतृत्व इसलिए भी जरूरी है कि यह सबसे व्यापक जनता को अपने साथ ले जाने की क्षमता रखता है। और समाज को सही विकास का रास्ता दिखता है। किसी भी तरह की जनवादी प्रक्रिया का वजूद जनता के बल पर होना चाहिए न की पूंजीपतियों, दलालों, नौकरशाहों, जमींदारों व अन्य शोषक तबकों के बल पर। 1947 से निगमों,पंचायतों,विधान सभाओं और लोक सभा तक हुए चुनावों का प्रतिनिधित्व शोषक वर्ग के पक्ष में बनाया गया है। इस ढकोसले का पर्दाफाश करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। आखिर में एक जवाब कि लोकतंत्र का सम्मान इस देश में जनता की राजनेतिक चेतना,भागीदारी,समानता और इज्ज़त और अधिकार के लिए लड़ने से ही होता हैं।

– संगीता गीत, एक्टिविस्ट

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